गुरुवार, 4 मार्च 2010

वो लम्हा

युहीं दिन गुज़रते रहते हैं 
लम्हा वक़्त की रेत में फिसलता जाता है 
उम्र के एक पड़ाव पे आकर जैसे 
एक पल सब थम सा जाता है 
तन्हाई के एहसास से दिल 
सहम सा जाता है 
एक दौर था जब लम्हों के पर होते थे
 हर साथी हमसफ़र संग होते थे 
उन लम्हों को रौंदते हुए,
हम तो अपनी ही धुन में चले जाते थे 
आज सोचती हूँ की वापस मुड़ 
कर उन लम्हों को अपनी दामन में समेट लूं 
जब तुम्हे मेरा इंतज़ार होता था... 
अब तो इन वीरान वादियों में भटकती रहती हूँ 
जहाँ दूर दूर तक तुम्हारा अक्स भी नहीं है 
 तुम्हारा साथ शायद उस उम्र तक ही था 
इस पल में अब मैं भी इक बीता लम्हा हूँ 
शायद मेरी उम्र की मंजिल आ गयी

कुछ खट्टी, कुछ मीठी

ज़िन्दगी में हर लम्हों की 
 कुछ खट्टी कुछ मीठी बातें होतीं हैं 
ग़म के साए के साथ 
आँखों में खुशियों की नमी होती है 
कभी कामयाबी का जश्न होता है 
तो कहीं नाकामयाबी से रातें ग़मगीन होती है 
कुछ खोने का डर होता है तो 
पाने के खाव्बों से शामें रंगीन होती हैं
हर वक़्त मंजिल को पाने की चाहत थी 
मंजिल आयी तो मैं कुछ थम सी गयी 
जैसे के बरसाती नदी सागर से मिल गयी 
वक़्त के शय बढ़ते चले और मैं बुत बनती गयी 
हरे भरे दरख़्त बढ़ते गए
 जो बाग़ लगाया था वो जंगल हो गए 
फूलों के जो साए थे अब अमरबेल बन दबोचने लगे 
पता ही ना चला कब वह बरसाती नदी झील बन गयी 
बस यूँ ही बैठी हूँ उस बरखा की आस में 
जो इस झील को बहा कर बरसाती नदी बना दे...

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

दिल की लगी

मेरे दामन को छू गई तेरी यादों की लहर 
ज़हन में इक हूक सी उठाती हुई 
तेरे वादों के साए अब भी 
दरवाज़े पर दस्तक देते है 
हर जगह तुम्हें ढूँढती हूँ 
 तेरी परछाई भी नज़र नही आती 
तेरी राहगुज़र बन संग चलना था 
तुमने तो अपनी राहें ही बदल ली 
दिल की लगी लगा कर 
न जाने कहाँ निकल गए…..

ज़ख़्म

रात की चादर से सीने के ज़ख्मो को ढकते हुए, 
उम्र गुजारते गए जो चोट दे गया
 उस शख्स को हर राहगुज़र में तलाशेते रहे॥
 कच्ची उम्र थी नादानी में शोलों से खेलते गए 
तब तो वे शोले नर्म सी गर्माहट लिए 
सर्द रातों में सुकून दिलाते रहे 
 एक दिन तेरे साथ की शाख टूट गयी 
मुस्कराहट लबों से रूठ गयी 
तब वही शोले दिल को जलाने लगे 
अंगार बन कर दामान से लिपट गए 
वक्त के साथ अंगार बुझ तो गए 
मगर ज़ख्मो को जहन में छोड़ते गए।