लम्हा वक़्त की रेत में
फिसलता जाता है
उम्र के एक पड़ाव पे आकर
जैसे
एक पल सब थम
सा जाता है
तन्हाई के एहसास से
दिल
सहम सा जाता है
एक दौर था जब लम्हों
के पर होते थे
हर साथी हमसफ़र
संग होते थे
उन लम्हों को रौंदते हुए,
हम तो अपनी ही धुन में
चले जाते थे
आज सोचती हूँ की
वापस मुड़
कर उन लम्हों को
अपनी दामन में समेट लूं
जब तुम्हे मेरा इंतज़ार होता था...
अब तो इन वीरान वादियों में
भटकती रहती हूँ
जहाँ
दूर दूर तक तुम्हारा अक्स भी नहीं है
तुम्हारा साथ शायद उस उम्र तक ही था
इस पल में अब मैं भी
इक बीता लम्हा हूँ
शायद मेरी उम्र की मंजिल आ गयी