गुरुवार, 4 मार्च 2010

वो लम्हा

युहीं दिन गुज़रते रहते हैं 
लम्हा वक़्त की रेत में फिसलता जाता है 
उम्र के एक पड़ाव पे आकर जैसे 
एक पल सब थम सा जाता है 
तन्हाई के एहसास से दिल 
सहम सा जाता है 
एक दौर था जब लम्हों के पर होते थे
 हर साथी हमसफ़र संग होते थे 
उन लम्हों को रौंदते हुए,
हम तो अपनी ही धुन में चले जाते थे 
आज सोचती हूँ की वापस मुड़ 
कर उन लम्हों को अपनी दामन में समेट लूं 
जब तुम्हे मेरा इंतज़ार होता था... 
अब तो इन वीरान वादियों में भटकती रहती हूँ 
जहाँ दूर दूर तक तुम्हारा अक्स भी नहीं है 
 तुम्हारा साथ शायद उस उम्र तक ही था 
इस पल में अब मैं भी इक बीता लम्हा हूँ 
शायद मेरी उम्र की मंजिल आ गयी

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