गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

दिल की लगी

मेरे दामन को छू गई तेरी यादों की लहर 
ज़हन में इक हूक सी उठाती हुई 
तेरे वादों के साए अब भी 
दरवाज़े पर दस्तक देते है 
हर जगह तुम्हें ढूँढती हूँ 
 तेरी परछाई भी नज़र नही आती 
तेरी राहगुज़र बन संग चलना था 
तुमने तो अपनी राहें ही बदल ली 
दिल की लगी लगा कर 
न जाने कहाँ निकल गए…..

ज़ख़्म

रात की चादर से सीने के ज़ख्मो को ढकते हुए, 
उम्र गुजारते गए जो चोट दे गया
 उस शख्स को हर राहगुज़र में तलाशेते रहे॥
 कच्ची उम्र थी नादानी में शोलों से खेलते गए 
तब तो वे शोले नर्म सी गर्माहट लिए 
सर्द रातों में सुकून दिलाते रहे 
 एक दिन तेरे साथ की शाख टूट गयी 
मुस्कराहट लबों से रूठ गयी 
तब वही शोले दिल को जलाने लगे 
अंगार बन कर दामान से लिपट गए 
वक्त के साथ अंगार बुझ तो गए 
मगर ज़ख्मो को जहन में छोड़ते गए।