गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

ज़ख़्म

रात की चादर से सीने के ज़ख्मो को ढकते हुए, 
उम्र गुजारते गए जो चोट दे गया
 उस शख्स को हर राहगुज़र में तलाशेते रहे॥
 कच्ची उम्र थी नादानी में शोलों से खेलते गए 
तब तो वे शोले नर्म सी गर्माहट लिए 
सर्द रातों में सुकून दिलाते रहे 
 एक दिन तेरे साथ की शाख टूट गयी 
मुस्कराहट लबों से रूठ गयी 
तब वही शोले दिल को जलाने लगे 
अंगार बन कर दामान से लिपट गए 
वक्त के साथ अंगार बुझ तो गए 
मगर ज़ख्मो को जहन में छोड़ते गए।

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