गुरुवार, 4 मार्च 2010

हर वक़्त मंजिल को पाने की चाहत थी 
मंजिल आयी तो मैं कुछ थम सी गयी 
जैसे के बरसाती नदी सागर से मिल गयी 
वक़्त के शय बढ़ते चले और मैं बुत बनती गयी 
हरे भरे दरख़्त बढ़ते गए
 जो बाग़ लगाया था वो जंगल हो गए 
फूलों के जो साए थे अब अमरबेल बन दबोचने लगे 
पता ही ना चला कब वह बरसाती नदी झील बन गयी 
बस यूँ ही बैठी हूँ उस बरखा की आस में 
जो इस झील को बहा कर बरसाती नदी बना दे...

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