मंजिल आयी तो मैं
कुछ थम सी गयी
जैसे के बरसाती नदी
सागर से मिल गयी
वक़्त के शय बढ़ते चले
और मैं बुत बनती गयी
हरे भरे दरख़्त बढ़ते गए
जो बाग़ लगाया था
वो जंगल हो गए
फूलों के जो साए थे अब
अमरबेल बन दबोचने लगे
पता ही ना चला कब वह
बरसाती नदी झील बन गयी
बस यूँ ही बैठी हूँ
उस बरखा की आस में
जो इस झील को बहा कर
बरसाती नदी बना दे...
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